
सम्पूर्ण संसार में तरह-तरह के लय और ताल पर जीवन को गति प्रदान की जाती है।दिल की धड़कन से लेकर फूलों के खिलने,वायु की बहने या फिर बिजली कड़कने तक में यह लायात्मताकता सहज ही देखी जा सकती है।प्रकर्ति के इस गुण को अनेको धर्मों ,धार्मिक समुदायों और समाजों ने कीर्तन के रूप में अपनाया।सामान्य तौर पर कीर्तन किसी एक मंत्र, नाम अथवा शब्द का लयबध्द तरीके से अकेले अथवा एक समूह मे उच्चारण करना है।
कीर्तन किसी धार्मिक अनुष्ठान के पूर्व में अथवा बाद में किया जाता है।कीर्तन के माध्यम से उस एकाग्र भाव को प्राप्त किया जाता हे जो की किसी अनुष्ठान हेतु अत्यंत आवश्यक है।अपने इष्ट का बार-बार कीर्तन कर वास्तव में भक्त उससे तादात्म बनाने का प्रयास करता है।किसी भी प्राणी के में आत्मा रूप से विराजमान उर्जा इस संसार में चंहु और विद्यमान है।इस उर्जा के साथ अपने भीतर की उर्जा का समन्वय अथवा संतुलन मनुष्य को सहज ही स्वास्थ एवं संतुष्टि प्रदान कर देता है lअतः इस सहज उपाय को कीर्तन के रूप में या इसके के ही किसी और फॉर्म को धर्मो ने अपनाया व बढावा दिया है l
हरे राम हरे राम ,हरे कृष्णा हरे कृष्णा कीर्तन बहुत सहज रूप से यह समझा देता है की जो राम है वही कृष्ण है और जो कृष्ण है वही राम है।इस प्रकार द्वैत और अद्वैत जैसा कठिन विषय भी स्वाभाविक रूप में सामान्य व्यक्ति की पंहुच में आ जाता है।
कीर्तन का उद्देश्य अपने भीतर की उर्जा को उच्चतम स्तर पर ले जाना है जहाँ मन स्वाभाविक ही जीवन के नए आयामों ,जिनमे जीवन की सुन्दरता और इसके प्रति सुखद अनुभूति सम्मिलित है ,छूने लगता है।यह सब कीर्तन में सहज रूप से पावों के थिरकने ,हाथों के संचालन , आँखों में आए भावों से प्रगट हो जाते हें।सनातन में तो कीर्तन को आवश्यक बतलाते हुए कहा गया है कि विशिष्ट अवसरों पर जैसे की देवी पूजन के अवसर पर पूर्ण उत्साह के साथ नृत्य ,संगीत भजन व कीर्तन किया जावे।बहुत कम ऐसा होता है की कीर्तन अकेले किया जावे।
कीर्तन में प्रयुक्त वाद्य , खरताल, मंझीरे , मृदंग इत्यादि सामूहिक अभिव्यक्ति को उच्चतम सामाजिक भाव जहाँ सभी उपस्थित व्यक्ति एक ही भाव से प्रेरित दिखलाई पड़ते हैं ,की ओर ले जाता है ।
प्रार्थना के पांच प्रमुख अंग है-
सर्वप्रथम हम नमन करते है अर्थात ईश्वर के विराट स्वरुप के आगे अहम् भाव त्याग कर विनय भाव अपनाते है।जब हम अपने को छोटा मान लेते है तो स्वतः ज्ञान का द्वार खुल जाता है।फिर हम ध्यान में उस इष्ट का स्मरण करते है।ईश्वर कोई मूर्ति अथवा प्रतीक नहीं है वह तो एक सत्य है।उर्जा के रूप में सदा उपस्थित।देवी भागवत पुराण में विवरण आता है की भगवान विष्णु बाल्य रूप में थे और उनके मन में विचार आया की वे कैसे उत्पन्न हुए, उनका जन्मदाता कौन है , उनका जन्म का उद्देश्य क्या है।तब उन्हें आधा श्लोक सुनाई दिया “———“। कहने वाला अदृश्य था, अर्थात जो जन्म देने वाली उर्जा है उसका कोई स्वरुप हो ही नहीं सकता और वो सदा उपस्थित है।
वैज्ञानिक रूप से भी उर्जा का ह्रास नहीं होता केवल स्वरुप परिवर्तन होता है, यह सर्वमान्य सिद्धांत है।अतः स्मरण के माध्यम से भीतर की इसी उर्जा की अनुभूति की जाती है। अब इस क्रम में कीर्तन आता है।यह गुणानुवाद है।बारम्बार इष्ट का नामोचरण , हमें अधिक और अधिक नम्र बनाता है। जैसे माँ के बार-बार उचारण से बच्चे का माँ के प्रति प्रेम बढता है वैसे इष्ट ही का नामोचरण हमें अपना अहम् त्यागने पर मजबूर कर देता है और हम अपने को भूल जाते है। यही समय ट्रांस का होता है जब हम अपनी सीमाओं से परे उस अदृश्य संसार में पंहुच जाते है ,जहाँ केवल उर्जा ही उर्जा होती है , मटेरियल का आभाव हो जाता है।
इस प्रकार कीर्तन सहित प्रार्थना हमें आत्मनिरीक्षण का सुअवसर देती है।महात्मा गाँधी ने प्रार्थना के जिओ सेंट्रिक महत्व को पहचाना था और बह्खुबी से उसे उपयोग किया था।
कीर्तन अत्यधिक शक्तिशाली माध्यम है।इसके उपरांत याचना की जाती है अर्थात दैन्य भाव उत्पन्न हो जाता है कि प्रभु में इस संसार का अत्यंत अल्प हिस्सा हूँ मुझे अपने अधिकाधिक करीब स्थान दे।तत्पश्यात अर्पण अर्थात सम्पूर्ण गुण दोषों के साथ ,अपने आप को उस परम सत्य के प्रति अर्पण कर दे।
सांय काल में परिवार के सदस्य यदि कीर्तन करे तो सहज ही प्रेम भाव ,सामंजस्य स्थापित हो जायेगा , इसमें कोई संशय नहीं है इस भागमभाग भरी जिंदगी में कीर्तन के महत्व को समझा और समझाया जाना चाहिए ताकि प्रकृति लय ताल के साथ हमारे जीवन की लय-ताल बनी रहे l
प्राध्यापक,मनोविज्ञान, शासकीय दूधाधारी महिला स्नात्कोत्तर महाविद्यालय ,रायपुर
कीर्तन की व्याख्या सरलता और समग्रता के साथ है।