Birsa Munda Jayanti 9 June

हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे बिरसा मुंडा (Birsa Munda) के वक्त थे,आदिवासी खदेड़े जा रहे हैं,दिकू अब भी हैं,जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं,महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ का एक अंश बिरसा मुंडा (Birsa Munda) जी के जयंती (9 जून) पर:
सवेरे आठ बजे बीरसा मुंडा (Birsa Munda) खून की उलटी कर,अचेत हो गया।बीरसा मुंडा-सुगना मुंडा का बेटा,उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी।तीसरी फ़रवरी को बीरसा पकड़ा गया था,किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बीरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था….क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था,लेकिन बीरसा जानता था उसे सज़ा नहीं होगी,’ डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी,वो बंद हो चुकी थी।बीरसा मुंडा नहीं मरा था,आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।
आदिवासियों का संघर्ष 18वीं शताब्दी से चला आ रहा है।1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे।सन 1895 से 1900 तक बीरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला।आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी।बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया।ये महाजन जिन्हें वे दिकू कहते थे,क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे।यह मात्र विद्रोह नहीं था,यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था।
आदिवासी और स्त्री मुद्दों पर अपने काम के लिए चर्चित साहित्यकार रमणिका गुप्ता अपनी किताब ‘आदिवासी अस्मिता का संकट’ में लिखती हैं, ‘आदिवासी इलाकों के जंगलों और ज़मीनों पर, राजा-नवाब या अंग्रेजों का नहीं जनता का कब्ज़ा था।राजा-नवाब थे तो ज़रूर, वे उन्हें लूटते भी थे, पर वे उनकी संस्कृति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे।अंग्रेज़ भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे।रेलों के विस्तार के लिए,जब उन्होंने पुराने मानभूम और दामिन-ई-कोह (वर्तमान में संथाल परगना) के इलाकों के जंगले काटने शुरू कर दिए और बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित होने लगे, आदिवासी चौंके और मंत्रणा शुरू हुई।’ वे आगे लिखती हैं, ‘अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वे गांव,जहां व सामूहिक खेती किया करते थे,ज़मींदारों,दलालों में बांटकर, राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी।इसके विरुद्ध बड़े पैमाने पर लोग आंदोलित हुए और उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू कर दिए।’
बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था जहां उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया।कहा जाता है कि-बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब-साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया।1890 के आसपास बिरसा वैष्णव धर्म की ओर मुड गए,जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते।मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते,बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है।बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे।
धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया।आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था,न खाने को भात था न पहनने को कपड़े।एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे।जो जंगल के दावेदार थे,वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए।यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए,उलगुलान शुरू हो गया था।
अपनों का धोखा
संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया।रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी।अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी।बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई।हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े,पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? लोग बेरहमी से मार दिए गए।25 जनवरी,1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे।अंग्रेज़ जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए,लेकिन जहां बंदूकें और तोपें काम नहीं आईं वहां पांच सौ रुपये ने काम कर दिया,बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया!
महाश्वेता देवी अपने महान कालजयी उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखती हैं,‘अगर उसे उसकी धरती पर दो वक़्त दो थाली घाटो, बरस में चार मोटे कपड़े, जाड़े में पुआल-भरे थैले का आराम, महाजन के हाथों छुटकारा, रौशनी करने के लिए महुआ का तेल, घाटो खाने के लिए काला नमक, जंगल की जड़ें और शहद, जंगल के हिरन और खरगोश-चिड़ियों आदि का मांस-ये सब मिल जाते तो बीरसा मुंडा शायद भगवान न बनता।’
‘उलगुलान’ के रुमानीवाद को साहित्य और जंगल से निकलकर साम्यवाद के हाथों में लाने वाले थे चारू मजुमदार, कनु सान्याल और जगत संथाल।इन्होंने इसे नक्सलवाद का रंग दे दिया।‘नक्सलवाद’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई है।साम्यवाद के सिद्धान्त से फ़ौरी तौर पर समानता रखने वाला आदिवासी आंदोलन कई मायनों में अलग भी था।बाद में इसे माओवाद से जोड़ दिया गया।
हालात तो आज भी नहीं बदले हैं।आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं,दिकू अब भी हैं।जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं।आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं।सब कुछ वही है,जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा।
ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं :
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